साथियो!
जैसा कि आप सभी जानते हैं, वज़ीरपुर के करीब दो दज़र्न गरम रोला इस्पात कारखानों के मज़दूर पिछले लगभग 1 महीने से अपने जायज़ हक़ों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पिछले वर्ष जो हड़ताल हुई थी उसमें यह बात तय हुई थी कि मालिक हर वर्ष 1500 रुपये बढ़ाएंँगे। इस वर्ष अप्रैल में वेतन में 1500 रुपये की बढ़ोत्तरी न होने पर मज़दूरों ने मालिकों को नोटिस दे दिया था। और जब मालिकों ने वेतन बढ़ोत्तरी नहीं की तो 6 जून को मज़दूरों ने अपनी हड़ताल का आग़ाज़ किया जिसमें कि मज़दूरों ने अपने वेतन में 2000 रुपये की बढ़ोत्तरी की माँग की। औपचारिक तौर पर मज़दूरों ने श्रम विभाग के सामने सभी श्रम कानूनों को लागू करने की भी माँग रखी लेकिन अभी तक मज़दूरों ने सीधे मालिकों के समक्ष न तो काम के घण्टे आठ करने, न्यूनतम मज़दूरी लागू करने की माँग उठायी थी और न ही डबल रेट से ओवरटाइम के भुगतान की। मालिकों के सामने मज़दूर अभी केवल 2000 रुपये की वेतन बढ़ोत्तरी की माँग उठा रहे थे। इस हड़ताल के 22वें दिन उप श्रमायुक्त के तत्वावधान में जो समझौता हुआ उस पर मालिकों को 8 घण्टे के कार्यदिवस और न्यूनतम मज़दूरी का वायदा करना पड़ा। लेकिन मालिकों को जल्द ही समझ आ गया कि इस समझौते को वे तब तक लागू नहीं कर सकते जब तक कि जहाँगीरपुरी और बादली के गरम रोला कारखानों में यही श्रम कानून नहीं लागू होते, क्योंकि उसके बिना वे बाज़ार की प्रतियोगिता में पिछड़ जाएँगे। इसलिए उन्होंने इस समझौते पर अमल करने से आज तक इंकार किया है और अभी भी इंकार कर रहे हैं। मज़दूर लगातार लड़ रहे हैं और अधिक से अधिक हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। हमें यक़ीन है कि हम जल्द ही इस संघर्ष से अधिकतम सम्भव माँगों पर जीत हासिल करेंगे। लेकिन बात सिर्फ़ इन विशिष्ट माँगों पर जीत की नहीं है।
इस आन्दोलन में अन्ततः मज़दूर पूर्णतः जीत सकते हैं, आंशिक तौर पर जीत सकते हैं या हार सकते हैं। वास्तव में, हमारे आन्दोलन की उपलब्धियों और इसकी कमज़ोरियों का मूल्यांकन रुपयों में नहीं किया जा सकता है। निश्चित रूप से, हर आन्दोलन के अन्त में जीत, हार या आंशिक जीत जैसा नतीजा सामने आता है और आज के दौर में तो ज़्यादातार आन्दोलनों में मज़दूरों को हार का ही सामना करना पड़ रहा है। इसके बावजूद, किसी आन्दोलन की उपलब्धियों का मूल्यांकन आन्दोलन के दौरान मज़दूरों द्वारा किये गये प्रयोगों द्वारा, उनके द्वारा दमन का बहादुरी से सामना किये जाने के द्वारा और पुलिस से लेकर गुण्डों जैसी ताक़तों से टकराने से किया जाना चाहिए; इसका मूल्यांकन मज़दूरों द्वारा सही राजनीति लागू करने से किया जाना चाहिए; इसका मूल्यांकन दलालों, ग़द्दारों, चुनावी पार्टियों की यूनियनों और एनजीओ राजनीति के सफ़ाये से और उनके लिए दरवाजे़ बन्द करने से किया जाना चाहिए।
वज़ीरपुर के मज़दूरों ने 6 जून से जारी अपने आन्दोलन में ऐसी कई मिसालें कायम की हैं जो भावी मज़दूर आन्दोलन के लिए प्रकाश स्तम्भ का काम करेंगी। मज़दूरों द्वारा सामुदायिक रसोई चलाने का प्रयोग ऐसा ही एक प्रयोग था; मज़दूरों द्वारा कारखाना गेटों पर ताला लगाने और कब्ज़ा करने का प्रयोग भी एक शानदार प्रयोग था; दो-दो बार मज़दूरों ने केवल अपनी जुझारू एकजुटता के दम पर अपने गिरफ़्तार साथियों को पुलिस से रिहा करवा लिया, यह भी आज के दौर में कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। मज़दूरों के आन्दोलन का ही दबाव था कि मज़दूरों ने श्रम कार्यालय पर दबाव डालकर कारखाना अधिनियम के तहत कारखानों के चालान कटवाये, एक कानूनी समझौते को न लागू करने वाले मालिकों को ‘कारण बताओ नोटिस’ जारी किये और दो-दो बार मालिकों को कानूनी समझौते पर हस्ताक्षर के लिए बाध्य किया। जब दो मज़दूर नेताओं को 4 जुलाई को पुलिस ने हिरासत में लेने की कोशिश की तो मज़दूर पुलिस की जीप के सामने लेट गये और गिरफ़्तारी होने ही नहीं दी। इसी दौरान मज़दूरों ने पूँजीवादी व्यवस्था के दिखाने के दाँत और खाने के दाँतों के बीच का फ़र्क भी देखा। जब श्रम कार्यालय के ज़रिये मालिकों की दाल न गल सकी तो उसके बाद मालिकों ने सीधे पुलिस और भाड़े के गुण्डों से आन्दोलनरत मज़दूरों पर हमले करवाये। लेकिन इसके बावजूद मज़दूर डटे रहे हैं। मज़दूरों को देश के अलग-अलग हिस्सों से ही नहीं बल्कि दुनिया भर से एकजुटता सन्देश और आर्थिक सहायता प्राप्त हुई। ये सारे प्रयोग, ये सारे संघर्ष और ये सारे नवोन्मेष इस आन्दोलन की सच्ची कमाई हैं। आने वाले कुछ दिनों में निश्चित तौर पर श्रम कार्यालय की ओर से कोई न कोई कार्रवाई की जायेगी, कोई न कोई वार्ता होगी, कोई न कोई समझौता होगा। मज़दूर इसमें सबकुछ जीत सकते हैं, बहुत कुछ जीत सकते हैं या थोड़ा-कुछ जीत सकते हैं। लेकिन आन्दोलन की उपलब्धियों और कमज़ोरियों को उपरोक्त प्रयोगों से मापा जा सकता है, केवल वेतन में होने वाली ज़्यादा या कम बढ़ोत्तरियों से नहीं। कोई भी राजनीतिक समझ रखने वाला व्यक्ति इस बात को अच्छी तरह समझता है।
बहुत से दलाल और भगोड़े तत्व जो पहले तो आन्दोलन में घुसने की कोशिश करते रहे, लेकिन जब नहीं घुस पाये तो आन्दोलन के असफल होने की घोषणाएँ करते रहे, मज़दूरों ने अपने साहस और अपने प्रयोगों से बार-बार उनके मुँह पर तमाचे लगाये। ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ के दलाली करते लोगों को मज़दूरों ने 20 जून को और 29 जून को अपने प्रदर्शन स्थल से मार भगाया। 20 जून के बाद से ही ये दलाल चारों तरफ़ मज़दूरों के इस जारी आन्दोलन के ख़िलाफ़ कुत्साप्रचार कर रहे थे और 27 और 28 जून को हुए कानूनी समझौते को शर्मनाक समझौताय् बता रहे थे; दो बार मज़दूरों द्वारा भगाये जाने के बाद वे इसे अस्पष्ट समझौता बताने लगे। अगर यह समझौता इतना ही शर्मनाक था तो मालिक अपने कारखानों में बन्दी का ख़तरा उठाकर भी इसे लागू करने से इंकार क्यों करते? मालिक तो ऐसे किसी भी समझौते को मज़दूरों पर थोपना चाहेंगे जो कि मज़दूरों के लिए शर्मनाक हो! लेकिन ‘इंकलाबी मज़दूर केन्द्र’ के दलालों का असली दर्द यह था कि मज़दूरों ने उन्हें खदेड़ दिया और अब संघर्षरत मज़दूरों के प्रति बदले की सोच से वे कुत्साप्रचार में लगे हुए हैं। ज़ाहिर है, ऐसे दलालों का सही उपचार मज़दूर वर्ग और वक़्त स्वतः ही कर देता है और इन पर ज़्यादा शब्द ख़र्च करने की ज़रूरत भी नहीं है। साथ ही, शर्मनाक समझौते की बात के पीछे ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ के लम्बे समय से अर्थवाद के शिकार दलालों की यह भी सोच है कि वेतन बढ़ोत्तरी के आकार से आन्दोलनों की सफलता और विफलता को आँका जाना चाहिए! अगर सफलता-विफलता की यही परिभाषा है तो ज़ाहिरा तौर पर देश में सबसे सफल मज़दूर आन्दोलन बैंक और बीमा-कर्मियों का है! खै़र, इन लोगों का अर्थवाद और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद अन्ततः इन्हें दलाली और ग़द्दारी के गड्ढे में ही ले जाने वाला था और तमाम अर्थवादियों की तरह इनकी भी यही नियति थी।
इस आन्दोलन के दौरान मज़दूरों ने न सिर्फ़ दलालों और गद्दारों का इलाज किया बल्कि बार-बार मंच से, अपने पर्चों और ब्लॉग से घोषणा की कि इस आन्दोलन के दरवाज़े चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों, एनजीओ तथा फण्डिंग एजेंसियों के लिए बन्द हैं। ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्व में मज़दूर सिर्फ़ आर्थिक अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि इस बात की लड़ाई भी लड़ रहे हैं कि मज़दूर आन्दोलन के भीतर एक सही राजनीतिक सोच का वर्चस्व स्थापित किया जाये। हम समझते हैं कि यह इस आन्दोलन की एक बड़ी उपलब्धि है और शायद यही कारण है कि बेहद कम मज़दूरी पाने वाले मज़दूर पिछले एक माह से अपने संघर्ष में भूख और तमाम मुश्किलात झेलते हुए भी डटे हुए हैं और हार नहीं मान रहे हैं। भविष्य में आर्थिक तौर पर मज़दूर कुछ भी हासिल करें, लेकिन यह लड़ाई सीखने और समझने की, अपनी राजनीतिक चेतना के स्तरोन्नयन की एक शानदार लड़ाई साबित हो रही है और आगे भी होगी।
इस आन्दोलन ने मज़दूरों के सामने श्रम कानूनों और श्रम विभाग के दन्त-नखविहीन होने को भी स्पष्ट किया है। ज़रा सोचिये, मालिकों ने 27 और 28 जून को एक बाध्यताकारी कानूनी समझौते पर हस्ताक्षर किया और आज एक सप्ताह बीतने को है, लेकिन श्रम कानूनों के तहत समूचे प्रयास करने के बावजूद श्रम विभाग के अधिकारी मालिकों को इस समझौते पर अमल करने को बाध्य नहीं कर पा रहे हैं! ‘कारण बताओ नोटिस’ जारी कर मालिकों को 7 जुलाई तक का वक्त दिया गया है। यदि मालिक उस दिन कोई जवाब नहीं दे पाते या कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं दे पाते तो कारखाना अधिनियम की धारा 29 के तहत उनके ख़िलाफ़ अदालती कार्रवाई शुरू हो जायेगी। साथ ही औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत मालिकों के जो चालान काटे गये हैं 10 जुलाई के बाद उस पर भी कार्रवाई शुरू हो जायेगी। लेकिन इसमें जो बड़ी से बड़ी जीत होगी वह यह है कि इन सारे कारखानों पर ताला लटक जायेगा! लेकिन कानूनी तौर पर कोई भी ग़लती न करने वाले मज़दूरों को भी इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। निश्चित तौर पर कई छोटे मालिक भी सड़क पर आ सकते हैं, लेकिन उससे मज़दूरों को ज़्यादा कुछ हासिल होगा इसकी उम्मीद कम है। साथ ही, जब तक मुकदमों को फैसला होगा, जिसमें कि कुछ महीने या साल भी लग सकते हैं, तब तक श्रम कानूनों में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जो कि मालिकों द्वारा कारखाने चलाने पर रोक लगा सके। यानी कि मालिक फैसले तक नये मज़दूरों को रखकर काम करवा सकता है। वज़ीरपुर के गरम रोला कारखाने के मामले में अगर कानूनी प्रक्रिया आगे बढ़ती है, तो इन कारखानों की तालाबन्दी तय है क्योंकि श्रम कानूनों का ऐसा नग्न उल्लंघन यहाँ होता है कि स्वयं श्रम विभाग के अधिकारी भी चकित थे। लेकिन तालाबन्दी से भी मज़दूरों को ज़्यादा कुछ नहीं मिलेगा और तालाबन्दी तक भी कारखाना मालिकों पर कोई निषेधाज्ञा नहीं लागू की जा सकती है। श्रम कानून इस कदर लचर और कमज़ोर हैं कि अगर उन्हें पूरी सख़्ती से लागू भी किया जाय तो मज़दूरों को ज़्यादा कुछ हासिल नहीं हो पाता है। लेकिन अगर श्रम कानूनों की तुलना यहीं हम सम्पत्ति की रक्षा करने वाले कानूनों से करें तो साफ़ हो जाता है कि कानून और संविधान किस तरह से मालिकों और अमीरों के पक्ष में खड़े हैं। जब मज़दूरों ने 1 और 2 जुलाई को कारखानों पर ताले लगाये तो पुलिस ने उन्हें आकर तोड़ा और उन पर निजी सम्पत्ति का अतिक्रमण करने का केस ठोंकने की धमकी दी। मज़दूर बार-बार ताले लगाते थे और पुलिस वाले बार-बार ताले तोड़ते थे और मज़दूरों पर केस डालने की धमकी देते थे। एक दिन तो उन्होंने दो मज़दूर नेताओं को गिरफ़्तार भी कर लिया। लेकिन कानूनी समझौते के उल्लंघन पर क्या पुलिस कभी किसी मालिक को गिरफ़्तार करती है? उस समय पुलिस इसे श्रमिक-नियोक्ता विवाद बताकर किनारे हो जाती है। यानी अगर मालिक मज़दूर के हक़ों का अतिक्रमण करे तो पुलिस के लिए वह श्रमिक-नियोक्ता विवाद है, लेकिन अगर मज़दूर मालिक की निजी सम्पत्ति की ओर आँख भी उठाकर देखे तो वह पुलिस के लिए ‘कानून-व्यवस्था’ का मसला बन जाता है। और समस्या यहाँ सिर्फ़ पुलिस प्रशासन के भ्रष्टाचार और मालिकों के हाथों बिके होने की नहीं है; वास्तव में, कानून भी ऐसे ही हैं! मज़दूरों ने अपने एक माह के संघर्ष में इस बात को गहराई से देखा और समझा है और वे न सिर्फ़ वज़ीरपुर के गरम रोला मालिकों के चरित्र को समझ रहे हैं बल्कि धीरे-धीरे पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की असलियत को भी समझ रहे हैं। हमारा मानना है कि यह इस आन्दोलन में वेतन में होने वाली किसी भी बढ़ोत्तरी से ज़्यादा बड़ी उपलब्धि है।
वेतन में जो ज़्यादा या कम बढ़ोत्तरी होना हर आन्दोलन में सामान्य बात है। लेकिन इस आन्दोलन में जो राजनीतिक प्रयोग हुए हैं, वे कोई रोज़मर्रा के प्रयोग या बातें नहीं थीं। इस आन्दोलन में मज़दूरों ने जो सीखा है वह उनकी राजनीतिक वर्ग चेतना का स्तरोन्नयन कर रहा है और आगे भी करेगा। हम पूरी तरह या आंशिक तौर पर जीते तो भी हमें आर्थिक अधिकारों के लिए भविष्य में फिर से लड़ना पड़ेगा और अगर हम हारे तो भी आर्थिक अधिकारों के लिए भविष्य में भी लड़ना पड़ेगा। लेकिन लड़ाई कैसे लड़ी जाती है यह सीखना सबसे अहम है और हमें लगता है कि इस मायने में हमने बहुत-कुछ सीखा है और सीख रहे हैं।
हम मज़दूर कल यानी कि 5 जुलाई से अपने हड़ताल स्थल राजा पार्क में मालिक-पुलिस-गुण्डा गठजोड़ के ख़िलाफ़ भूख हड़ताल कर रहे हैं। शहर के सभी इंसाप़फ़पसन्द मज़दूरों, छात्राें, बुद्धिजीवियों, राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं से हम अपील कर रहे हैं कि इस भूख हड़ताल के समर्थन में वे 5 जुलाई को सुबह 10 बजे राजा पार्क पहुँचें और मज़दूरों का उत्साहवर्धन करें। हम जानते हैं कि यह लड़ाई चाहे जिस भी रूप में समाप्त हो, हमने इन 30 दिनों में बहुत-कुछ सीखा है। हमारे ये अनुभव आगे के संघर्षों में हमारे और अन्य मज़दूर भाइयों और बहनों के काम आएँगे। हम संकल्पबद्ध हैं कि अधिकतम सम्भव माँगों पर जीत अर्जित की जाये। इस मुहिम में हमारा साथ दें!
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,
गरम रोला मज़दूर एकता समिति
जैसा कि आप सभी जानते हैं, वज़ीरपुर के करीब दो दज़र्न गरम रोला इस्पात कारखानों के मज़दूर पिछले लगभग 1 महीने से अपने जायज़ हक़ों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पिछले वर्ष जो हड़ताल हुई थी उसमें यह बात तय हुई थी कि मालिक हर वर्ष 1500 रुपये बढ़ाएंँगे। इस वर्ष अप्रैल में वेतन में 1500 रुपये की बढ़ोत्तरी न होने पर मज़दूरों ने मालिकों को नोटिस दे दिया था। और जब मालिकों ने वेतन बढ़ोत्तरी नहीं की तो 6 जून को मज़दूरों ने अपनी हड़ताल का आग़ाज़ किया जिसमें कि मज़दूरों ने अपने वेतन में 2000 रुपये की बढ़ोत्तरी की माँग की। औपचारिक तौर पर मज़दूरों ने श्रम विभाग के सामने सभी श्रम कानूनों को लागू करने की भी माँग रखी लेकिन अभी तक मज़दूरों ने सीधे मालिकों के समक्ष न तो काम के घण्टे आठ करने, न्यूनतम मज़दूरी लागू करने की माँग उठायी थी और न ही डबल रेट से ओवरटाइम के भुगतान की। मालिकों के सामने मज़दूर अभी केवल 2000 रुपये की वेतन बढ़ोत्तरी की माँग उठा रहे थे। इस हड़ताल के 22वें दिन उप श्रमायुक्त के तत्वावधान में जो समझौता हुआ उस पर मालिकों को 8 घण्टे के कार्यदिवस और न्यूनतम मज़दूरी का वायदा करना पड़ा। लेकिन मालिकों को जल्द ही समझ आ गया कि इस समझौते को वे तब तक लागू नहीं कर सकते जब तक कि जहाँगीरपुरी और बादली के गरम रोला कारखानों में यही श्रम कानून नहीं लागू होते, क्योंकि उसके बिना वे बाज़ार की प्रतियोगिता में पिछड़ जाएँगे। इसलिए उन्होंने इस समझौते पर अमल करने से आज तक इंकार किया है और अभी भी इंकार कर रहे हैं। मज़दूर लगातार लड़ रहे हैं और अधिक से अधिक हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। हमें यक़ीन है कि हम जल्द ही इस संघर्ष से अधिकतम सम्भव माँगों पर जीत हासिल करेंगे। लेकिन बात सिर्फ़ इन विशिष्ट माँगों पर जीत की नहीं है।
इस आन्दोलन में अन्ततः मज़दूर पूर्णतः जीत सकते हैं, आंशिक तौर पर जीत सकते हैं या हार सकते हैं। वास्तव में, हमारे आन्दोलन की उपलब्धियों और इसकी कमज़ोरियों का मूल्यांकन रुपयों में नहीं किया जा सकता है। निश्चित रूप से, हर आन्दोलन के अन्त में जीत, हार या आंशिक जीत जैसा नतीजा सामने आता है और आज के दौर में तो ज़्यादातार आन्दोलनों में मज़दूरों को हार का ही सामना करना पड़ रहा है। इसके बावजूद, किसी आन्दोलन की उपलब्धियों का मूल्यांकन आन्दोलन के दौरान मज़दूरों द्वारा किये गये प्रयोगों द्वारा, उनके द्वारा दमन का बहादुरी से सामना किये जाने के द्वारा और पुलिस से लेकर गुण्डों जैसी ताक़तों से टकराने से किया जाना चाहिए; इसका मूल्यांकन मज़दूरों द्वारा सही राजनीति लागू करने से किया जाना चाहिए; इसका मूल्यांकन दलालों, ग़द्दारों, चुनावी पार्टियों की यूनियनों और एनजीओ राजनीति के सफ़ाये से और उनके लिए दरवाजे़ बन्द करने से किया जाना चाहिए।
वज़ीरपुर के मज़दूरों ने 6 जून से जारी अपने आन्दोलन में ऐसी कई मिसालें कायम की हैं जो भावी मज़दूर आन्दोलन के लिए प्रकाश स्तम्भ का काम करेंगी। मज़दूरों द्वारा सामुदायिक रसोई चलाने का प्रयोग ऐसा ही एक प्रयोग था; मज़दूरों द्वारा कारखाना गेटों पर ताला लगाने और कब्ज़ा करने का प्रयोग भी एक शानदार प्रयोग था; दो-दो बार मज़दूरों ने केवल अपनी जुझारू एकजुटता के दम पर अपने गिरफ़्तार साथियों को पुलिस से रिहा करवा लिया, यह भी आज के दौर में कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। मज़दूरों के आन्दोलन का ही दबाव था कि मज़दूरों ने श्रम कार्यालय पर दबाव डालकर कारखाना अधिनियम के तहत कारखानों के चालान कटवाये, एक कानूनी समझौते को न लागू करने वाले मालिकों को ‘कारण बताओ नोटिस’ जारी किये और दो-दो बार मालिकों को कानूनी समझौते पर हस्ताक्षर के लिए बाध्य किया। जब दो मज़दूर नेताओं को 4 जुलाई को पुलिस ने हिरासत में लेने की कोशिश की तो मज़दूर पुलिस की जीप के सामने लेट गये और गिरफ़्तारी होने ही नहीं दी। इसी दौरान मज़दूरों ने पूँजीवादी व्यवस्था के दिखाने के दाँत और खाने के दाँतों के बीच का फ़र्क भी देखा। जब श्रम कार्यालय के ज़रिये मालिकों की दाल न गल सकी तो उसके बाद मालिकों ने सीधे पुलिस और भाड़े के गुण्डों से आन्दोलनरत मज़दूरों पर हमले करवाये। लेकिन इसके बावजूद मज़दूर डटे रहे हैं। मज़दूरों को देश के अलग-अलग हिस्सों से ही नहीं बल्कि दुनिया भर से एकजुटता सन्देश और आर्थिक सहायता प्राप्त हुई। ये सारे प्रयोग, ये सारे संघर्ष और ये सारे नवोन्मेष इस आन्दोलन की सच्ची कमाई हैं। आने वाले कुछ दिनों में निश्चित तौर पर श्रम कार्यालय की ओर से कोई न कोई कार्रवाई की जायेगी, कोई न कोई वार्ता होगी, कोई न कोई समझौता होगा। मज़दूर इसमें सबकुछ जीत सकते हैं, बहुत कुछ जीत सकते हैं या थोड़ा-कुछ जीत सकते हैं। लेकिन आन्दोलन की उपलब्धियों और कमज़ोरियों को उपरोक्त प्रयोगों से मापा जा सकता है, केवल वेतन में होने वाली ज़्यादा या कम बढ़ोत्तरियों से नहीं। कोई भी राजनीतिक समझ रखने वाला व्यक्ति इस बात को अच्छी तरह समझता है।
बहुत से दलाल और भगोड़े तत्व जो पहले तो आन्दोलन में घुसने की कोशिश करते रहे, लेकिन जब नहीं घुस पाये तो आन्दोलन के असफल होने की घोषणाएँ करते रहे, मज़दूरों ने अपने साहस और अपने प्रयोगों से बार-बार उनके मुँह पर तमाचे लगाये। ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ के दलाली करते लोगों को मज़दूरों ने 20 जून को और 29 जून को अपने प्रदर्शन स्थल से मार भगाया। 20 जून के बाद से ही ये दलाल चारों तरफ़ मज़दूरों के इस जारी आन्दोलन के ख़िलाफ़ कुत्साप्रचार कर रहे थे और 27 और 28 जून को हुए कानूनी समझौते को शर्मनाक समझौताय् बता रहे थे; दो बार मज़दूरों द्वारा भगाये जाने के बाद वे इसे अस्पष्ट समझौता बताने लगे। अगर यह समझौता इतना ही शर्मनाक था तो मालिक अपने कारखानों में बन्दी का ख़तरा उठाकर भी इसे लागू करने से इंकार क्यों करते? मालिक तो ऐसे किसी भी समझौते को मज़दूरों पर थोपना चाहेंगे जो कि मज़दूरों के लिए शर्मनाक हो! लेकिन ‘इंकलाबी मज़दूर केन्द्र’ के दलालों का असली दर्द यह था कि मज़दूरों ने उन्हें खदेड़ दिया और अब संघर्षरत मज़दूरों के प्रति बदले की सोच से वे कुत्साप्रचार में लगे हुए हैं। ज़ाहिर है, ऐसे दलालों का सही उपचार मज़दूर वर्ग और वक़्त स्वतः ही कर देता है और इन पर ज़्यादा शब्द ख़र्च करने की ज़रूरत भी नहीं है। साथ ही, शर्मनाक समझौते की बात के पीछे ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ के लम्बे समय से अर्थवाद के शिकार दलालों की यह भी सोच है कि वेतन बढ़ोत्तरी के आकार से आन्दोलनों की सफलता और विफलता को आँका जाना चाहिए! अगर सफलता-विफलता की यही परिभाषा है तो ज़ाहिरा तौर पर देश में सबसे सफल मज़दूर आन्दोलन बैंक और बीमा-कर्मियों का है! खै़र, इन लोगों का अर्थवाद और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद अन्ततः इन्हें दलाली और ग़द्दारी के गड्ढे में ही ले जाने वाला था और तमाम अर्थवादियों की तरह इनकी भी यही नियति थी।
इस आन्दोलन के दौरान मज़दूरों ने न सिर्फ़ दलालों और गद्दारों का इलाज किया बल्कि बार-बार मंच से, अपने पर्चों और ब्लॉग से घोषणा की कि इस आन्दोलन के दरवाज़े चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों, एनजीओ तथा फण्डिंग एजेंसियों के लिए बन्द हैं। ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्व में मज़दूर सिर्फ़ आर्थिक अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि इस बात की लड़ाई भी लड़ रहे हैं कि मज़दूर आन्दोलन के भीतर एक सही राजनीतिक सोच का वर्चस्व स्थापित किया जाये। हम समझते हैं कि यह इस आन्दोलन की एक बड़ी उपलब्धि है और शायद यही कारण है कि बेहद कम मज़दूरी पाने वाले मज़दूर पिछले एक माह से अपने संघर्ष में भूख और तमाम मुश्किलात झेलते हुए भी डटे हुए हैं और हार नहीं मान रहे हैं। भविष्य में आर्थिक तौर पर मज़दूर कुछ भी हासिल करें, लेकिन यह लड़ाई सीखने और समझने की, अपनी राजनीतिक चेतना के स्तरोन्नयन की एक शानदार लड़ाई साबित हो रही है और आगे भी होगी।
इस आन्दोलन ने मज़दूरों के सामने श्रम कानूनों और श्रम विभाग के दन्त-नखविहीन होने को भी स्पष्ट किया है। ज़रा सोचिये, मालिकों ने 27 और 28 जून को एक बाध्यताकारी कानूनी समझौते पर हस्ताक्षर किया और आज एक सप्ताह बीतने को है, लेकिन श्रम कानूनों के तहत समूचे प्रयास करने के बावजूद श्रम विभाग के अधिकारी मालिकों को इस समझौते पर अमल करने को बाध्य नहीं कर पा रहे हैं! ‘कारण बताओ नोटिस’ जारी कर मालिकों को 7 जुलाई तक का वक्त दिया गया है। यदि मालिक उस दिन कोई जवाब नहीं दे पाते या कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं दे पाते तो कारखाना अधिनियम की धारा 29 के तहत उनके ख़िलाफ़ अदालती कार्रवाई शुरू हो जायेगी। साथ ही औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत मालिकों के जो चालान काटे गये हैं 10 जुलाई के बाद उस पर भी कार्रवाई शुरू हो जायेगी। लेकिन इसमें जो बड़ी से बड़ी जीत होगी वह यह है कि इन सारे कारखानों पर ताला लटक जायेगा! लेकिन कानूनी तौर पर कोई भी ग़लती न करने वाले मज़दूरों को भी इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। निश्चित तौर पर कई छोटे मालिक भी सड़क पर आ सकते हैं, लेकिन उससे मज़दूरों को ज़्यादा कुछ हासिल होगा इसकी उम्मीद कम है। साथ ही, जब तक मुकदमों को फैसला होगा, जिसमें कि कुछ महीने या साल भी लग सकते हैं, तब तक श्रम कानूनों में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जो कि मालिकों द्वारा कारखाने चलाने पर रोक लगा सके। यानी कि मालिक फैसले तक नये मज़दूरों को रखकर काम करवा सकता है। वज़ीरपुर के गरम रोला कारखाने के मामले में अगर कानूनी प्रक्रिया आगे बढ़ती है, तो इन कारखानों की तालाबन्दी तय है क्योंकि श्रम कानूनों का ऐसा नग्न उल्लंघन यहाँ होता है कि स्वयं श्रम विभाग के अधिकारी भी चकित थे। लेकिन तालाबन्दी से भी मज़दूरों को ज़्यादा कुछ नहीं मिलेगा और तालाबन्दी तक भी कारखाना मालिकों पर कोई निषेधाज्ञा नहीं लागू की जा सकती है। श्रम कानून इस कदर लचर और कमज़ोर हैं कि अगर उन्हें पूरी सख़्ती से लागू भी किया जाय तो मज़दूरों को ज़्यादा कुछ हासिल नहीं हो पाता है। लेकिन अगर श्रम कानूनों की तुलना यहीं हम सम्पत्ति की रक्षा करने वाले कानूनों से करें तो साफ़ हो जाता है कि कानून और संविधान किस तरह से मालिकों और अमीरों के पक्ष में खड़े हैं। जब मज़दूरों ने 1 और 2 जुलाई को कारखानों पर ताले लगाये तो पुलिस ने उन्हें आकर तोड़ा और उन पर निजी सम्पत्ति का अतिक्रमण करने का केस ठोंकने की धमकी दी। मज़दूर बार-बार ताले लगाते थे और पुलिस वाले बार-बार ताले तोड़ते थे और मज़दूरों पर केस डालने की धमकी देते थे। एक दिन तो उन्होंने दो मज़दूर नेताओं को गिरफ़्तार भी कर लिया। लेकिन कानूनी समझौते के उल्लंघन पर क्या पुलिस कभी किसी मालिक को गिरफ़्तार करती है? उस समय पुलिस इसे श्रमिक-नियोक्ता विवाद बताकर किनारे हो जाती है। यानी अगर मालिक मज़दूर के हक़ों का अतिक्रमण करे तो पुलिस के लिए वह श्रमिक-नियोक्ता विवाद है, लेकिन अगर मज़दूर मालिक की निजी सम्पत्ति की ओर आँख भी उठाकर देखे तो वह पुलिस के लिए ‘कानून-व्यवस्था’ का मसला बन जाता है। और समस्या यहाँ सिर्फ़ पुलिस प्रशासन के भ्रष्टाचार और मालिकों के हाथों बिके होने की नहीं है; वास्तव में, कानून भी ऐसे ही हैं! मज़दूरों ने अपने एक माह के संघर्ष में इस बात को गहराई से देखा और समझा है और वे न सिर्फ़ वज़ीरपुर के गरम रोला मालिकों के चरित्र को समझ रहे हैं बल्कि धीरे-धीरे पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की असलियत को भी समझ रहे हैं। हमारा मानना है कि यह इस आन्दोलन में वेतन में होने वाली किसी भी बढ़ोत्तरी से ज़्यादा बड़ी उपलब्धि है।
वेतन में जो ज़्यादा या कम बढ़ोत्तरी होना हर आन्दोलन में सामान्य बात है। लेकिन इस आन्दोलन में जो राजनीतिक प्रयोग हुए हैं, वे कोई रोज़मर्रा के प्रयोग या बातें नहीं थीं। इस आन्दोलन में मज़दूरों ने जो सीखा है वह उनकी राजनीतिक वर्ग चेतना का स्तरोन्नयन कर रहा है और आगे भी करेगा। हम पूरी तरह या आंशिक तौर पर जीते तो भी हमें आर्थिक अधिकारों के लिए भविष्य में फिर से लड़ना पड़ेगा और अगर हम हारे तो भी आर्थिक अधिकारों के लिए भविष्य में भी लड़ना पड़ेगा। लेकिन लड़ाई कैसे लड़ी जाती है यह सीखना सबसे अहम है और हमें लगता है कि इस मायने में हमने बहुत-कुछ सीखा है और सीख रहे हैं।
हम मज़दूर कल यानी कि 5 जुलाई से अपने हड़ताल स्थल राजा पार्क में मालिक-पुलिस-गुण्डा गठजोड़ के ख़िलाफ़ भूख हड़ताल कर रहे हैं। शहर के सभी इंसाप़फ़पसन्द मज़दूरों, छात्राें, बुद्धिजीवियों, राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं से हम अपील कर रहे हैं कि इस भूख हड़ताल के समर्थन में वे 5 जुलाई को सुबह 10 बजे राजा पार्क पहुँचें और मज़दूरों का उत्साहवर्धन करें। हम जानते हैं कि यह लड़ाई चाहे जिस भी रूप में समाप्त हो, हमने इन 30 दिनों में बहुत-कुछ सीखा है। हमारे ये अनुभव आगे के संघर्षों में हमारे और अन्य मज़दूर भाइयों और बहनों के काम आएँगे। हम संकल्पबद्ध हैं कि अधिकतम सम्भव माँगों पर जीत अर्जित की जाये। इस मुहिम में हमारा साथ दें!
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,
गरम रोला मज़दूर एकता समिति
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